कुछ भी कहती हूँ तुम्हे नया नहीं लगता
तुम्हे क्या कह के खुश किया करूँ
फिर लगता है की जब तुम मैं हो और मैं तुम
तो क्यूँ न खुद को ही खुश किया करूँ
तुम मैं ही तो हो ..
कितने सवाल बन गयी थी मैं
हर कशमकश का आगाज़, मैं
किस बेतरतीबी से फैले थे
मेरी कहानी के कागज़ कमरे में
तुम ने यूँ सहेज दिया मुझे
पास आ कर खुद में समेट लिया मुझे
मैं अपने विस्तार पे इतराने लगी थी
"बस मेरी हो तुम" ...
कह कर संक्षेप दिया मुझे
शक्ल से लगते तो नहीं पर थोड़े से पागल तुम भी हो
मेरे हर दीवानेपन की हद में शामिल तुम भी हो
मुझ में खो कर दुनिया से घाफ़िल तुम भी हो
मैं अहमक सही ..
मेरी इस महफ़िल में अब दाखिल तुम भी हो
अब तो जहाँ निगाह की बस्तियां जमती है तुम आ ठहरते हो
मेरा श्वेत श्याम घर था, तुम हर रंग में आ संवरते हो
महकती चांदनी के डेरों पे तुम आसमान सा आ बसरते हो
घर की इन दर ओ दरवाजों के दरमियाँ बस तुम ही तो हो
अब मैं नहीं .. बस तुम ही तो हो ..