November 17, 2011

ये सड़क कहीं पहुँचती नहीं


ये गहरे काले पेड़ों के साये
अब नहीं डरती मैं इनसे
मेरे अन्दर की परछाई से
कम काले है
ये साये...

ये लम्बी सी सड़क
सड़क के इस तरफ एक भीड़
इस तरफ सैकड़ों तन्हाईयाँ
चलती ही जा रही है
ये सड़क कहीं पहुँचती नहीं

कार के शीशों पे ये
गिरता काला पानी
सामने की गाडी की तेज़ रौशनी
आँखें चौंधियां जाती है
पर मैं टस से मस नहीं होती

अब नहीं लगता हर आहट पे कोई है
एक आवेग लिए बस मैं चलती जा रही हूँ
मैं बस फिसलती ढलती
पानी में गलती जा रही हूँ ..

ये 'काश' नाम का शब्द खुद पर से
कब का मिटा दिया
बहुत रो चुकी
मैं अब हंसती जा रही हूँ
मैं दलदल में धंसती जा रही हूँ ..

हर चौराहे पे सामान दफनाती जा रही हूँ
मैं खुद को तरसता देख मुस्कुराती जा रही हूँ ..

इस अँधेरी गलियों में खुद को गुमाती जा रही हूँ
खुद से ही नाराज़ हूँ खुद को ही मनाती जा रही हूँ ..

हर दर्द को आँखों से बहाती जा रही हूँ
मैं वक़्त के झुनझुने से खुद को बहलाती जा रही हूँ ..

मैं अपनी हर जीत से हारती जा रही हूँ
मैं ये जिंदगी खुद पर से उतारती जा रही हूँ ..

6 comments:

  1. हर दर्द को आँखों से बहाती जा रही हूँ
    मैं वक़्त के झुनझुने से खुद को बहलाती जा रही हूँ ..कई अर्थों को समेटे हुए एक अच्छी रचना बधाई

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  2. मैं ये जिंदगी खुद पर से उतारती जा रही हूँ ..

    lamba hai ye safar meri dost..bas chaltey jayenge.:)
    Awesome!
    Cheers!

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  3. wow... there is always a positivity in your writings... i love that.. beautiful words.. very inspiring..

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  4. sai ki silly si achi si pyari bitiya, dil chu jati hai hamesha :)

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  5. मैं अपनी हर जीत से हारती जा रही हूँ
    मैं ये जिंदगी खुद पर से उतारती जा रही हूँ ..
    Awesome.. Anu.. !! Behtareen Kavita.. !!

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  6. एक अलग ही सोच एक अनूठा विचार सोचने को मजबूर करती और अपने मन को और मजबूत करने कि प्रेरणा देती हुई पोस्ट

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