December 26, 2011

ज़िन्दगी से शिकवा था ..


ज़िन्दगी से शिकवा था, ये तो अब समझ आया ..
मरे जा रहे थे जीने के नाम पे

जिस्म मिट्टी में दफ़न था पर धड़कता था रह रह कर ..
उधार की आहें थीं साँसों के नाम पे

रोज़ चाबी भरते थे, क्या क्या न कह मनाते थे ..
एक प्लास्टिक का खिलौना हो मानो, इस क़ल्ब* के नाम पे

बुलाते थे बादलों को आँखों में सिमट जाने को ..
आंसुओं में भीगते थे बारिशों के नाम पे

चाँद को लोरी सुना के सुला देते थे आसमान पे ..
करवटों से लड़ते थे .. नींदों के नाम पे

खुशफ़हमी थी की पा लिया सुकून खुदाई का ..
खुद को नाराज़ रखते थे हसरतों के नाम पे

[क़ल्ब* = दिल ]

9 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर काव्य है |

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  2. वाह .. क्या बात है ... बहुत कमाल की पंक्तियाँ हैं सभी ...

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  3. ...प्रशंसनीय रचना - बधाई
    नव वर्ष की अग्रिम शुभ कामनाएँ

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  4. खुद को नाराज़ रखते 'हैं' हसरतों के नाम पे :)

    Beautifully portrayed!

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  5. ज़िन्दगी से शिकवा था ...ये कविता मुझे बेहद पसंद आई है क्या खूब लिखा है आपके के सिवा ऐसी ख़ूबसूरत कविता और कोई दूसरा कोई नहीं लिख सकता था, आपको ही पता है सरल शब्द किस तरह ख़ुश्बू देते हैं। आपका लेखन नायाब है, आपकी सोच अच्छी होगी जो आप इतना अच्छा लिख सकीं है ये हर किसी के बस कि बात नहीं है |

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  6. Wah Sharmajee .. Bahut Khoob ...

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  7. Overall poem is good....Last 3 stanza...much better...

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