January 27, 2012

रात का यह मौन पहर



रात का यह मौन पहर
ज़िन्दगी को ज़रा सोचा
मानो कुछ थम गया हो सीने में
एक सांस अटकी
तो एक सांस नाराज़ ..

एक खलिश ज़ेहन में रेंगती है
गले में समंदर की प्यास
कहीं दूर से मुझे
सुनाई देती है
मेरी अपनी ही मूक आवाज़ ..

कुछ सपने सामने मेज़ पे
statue* के खेल में 
जड़  पड़े हैं
वक़्त की उँगलियों से धूल में
उभर आये
कुछ एक चेहरों के आकार ..

अपने हाथ की लकीरों में
देखती हूँ कुछ नाम
जो दिखते है वो छूते नहीं
जो छूते है वो दिखते नहीं
ये नाम, कितने बदमाश

ये चाँद जलाता है कागज़ी दिन मेरे
ये धुआं धुआं मेरे ख्वाब
मेरे हाथों पे छिल आते हैं
ऐ ज़िन्दगी,
तेरी चुभन के एहसास ..

मेरे हाथों पे रोज़ लगती है
मेहँदी विस्ल ए यार की
पैरों में मगर ये पायल
इसकी घुंगरू सी गुंजन
और बेड़ियों से अंदाज़ ..

रात के पहलू में सिमटा
मासूम नन्हा सा लम्हा
इस खामोशी के आलिंगन में
ये रात छुपाये कितने सर्द
कितने गहरे काले राज़ ..

January 15, 2012

ये खामोशी सुन रहे हो?



ये खामोशी सुन रहे हो?
ये पानी सी बहती खामोशी ..
काली रात में शांत झील सी खामोशी

आकाश से हसरतों का एक सितारा
इस झील में क्या गिरा
ख़ामोशी .. नूर ऐ खुदा हो गयी
काली रात और नीचे पानी में बहता पिघलता आफ़ताब

मैं पेड़ की डाल सी
बहती नूरानी को छूती हूँ
देखती हूँ
न उदास न उमंगी,
बस देखती हूँ

मेरे कुछ बदमाश पत्ते
कूद गए फिर पानी में
समझाया था इन्हें ..
देखो .. बह गए न मुझसे दूर

इस खामोशी में देखो वक़्त कैसे बह रहा है ठाट से
नहीं देखता वो पेड़ों को, हम तो यूँही बुत बने खड़े है ..
ताकती आखें लिए

कुछ समय पहले की ही तो बात है
मैं भी हरी थी, 
मुझ पर भी चांदी की बौर हुआ करती थी

मुझे में अब भी कोई गुंजन बाकी हो कहीं
जब किरणों की छोटी छोटी परियां आकर झूला डाला करती ..
उनकी कुछ सुनहरी किलकारियां चुरा के रख ली थी
यहीं कहीं एक टहनी पे

ऊपर की पत्तियों को मत देखना
उनपे कुछ धागे रख छोड़े है सूखने को
मासूम परियां जाने कितनी मन्नतें मिन्नतें
बाँध जाती थी मेरे इर्द गिर्द

सोहनी मुझ पर अपना दुपट्टा छोड़ गयी थी
बोला था उसको मटका कच्चा है .. नहीं मानी
डूब गयी वो इसी खामोशी में .. महिवाल के लिए

हीर उसी हरे दुपट्टे को मुझसे खींच ले गयी
नादान थी .. नहीं जानती थी ये तो इश्क की चुनरी है
खुद बा खुद बसंती रंग जाती है
जैसे हीर रांझे में रांझा रंग जाती है

वो दुपट्टा हीर ने झील में धोने को क्या डाला
खामोश झील यूँ बसंती हुई है कि 
रंगरेज़ भी हैरान है
वक़्त का कतरा कतरा भी जल गया इस बसंती आग में
मैं पेड़ की डाल सी .. हैरान हूँ परेशान हूँ
ये नज़ारा भी अभी बाकी था ?
सोचती हूँ ..

मेरे पत्तों पे रखीं वो परियों की सब मन्नतें
आज कुबूल हो जायेंगी
सब पत्ते गिर रहे हैं पानी में
आज सब धागे रंग जायेंगे ..

और मैं ..
बहुत दिनों बाद आज मुझ पर फिर आके कोयल बैठी है
हम दोनों मिल के .. परियों को आवाज़ देने लगती है
आओ.. फिर झूले डालो ना ..