January 27, 2012

रात का यह मौन पहर



रात का यह मौन पहर
ज़िन्दगी को ज़रा सोचा
मानो कुछ थम गया हो सीने में
एक सांस अटकी
तो एक सांस नाराज़ ..

एक खलिश ज़ेहन में रेंगती है
गले में समंदर की प्यास
कहीं दूर से मुझे
सुनाई देती है
मेरी अपनी ही मूक आवाज़ ..

कुछ सपने सामने मेज़ पे
statue* के खेल में 
जड़  पड़े हैं
वक़्त की उँगलियों से धूल में
उभर आये
कुछ एक चेहरों के आकार ..

अपने हाथ की लकीरों में
देखती हूँ कुछ नाम
जो दिखते है वो छूते नहीं
जो छूते है वो दिखते नहीं
ये नाम, कितने बदमाश

ये चाँद जलाता है कागज़ी दिन मेरे
ये धुआं धुआं मेरे ख्वाब
मेरे हाथों पे छिल आते हैं
ऐ ज़िन्दगी,
तेरी चुभन के एहसास ..

मेरे हाथों पे रोज़ लगती है
मेहँदी विस्ल ए यार की
पैरों में मगर ये पायल
इसकी घुंगरू सी गुंजन
और बेड़ियों से अंदाज़ ..

रात के पहलू में सिमटा
मासूम नन्हा सा लम्हा
इस खामोशी के आलिंगन में
ये रात छुपाये कितने सर्द
कितने गहरे काले राज़ ..

3 comments:

  1. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।
    बसंत पंचमी की शुभकामनाएं....

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  2. बहुत सुन्दर!

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  3. बहुत सुन्दर रचना है।

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