November 30, 2011

तुम ही तो हो ..



कुछ भी कहती हूँ तुम्हे नया नहीं लगता
तुम्हे क्या कह के खुश किया करूँ
फिर लगता है की जब तुम मैं हो और मैं तुम
तो क्यूँ न खुद को ही खुश किया करूँ 

तुम मैं ही तो हो ..

कितने सवाल बन गयी थी मैं
हर कशमकश का आगाज़, मैं
किस बेतरतीबी से फैले थे 
मेरी कहानी के कागज़ कमरे में 

तुम ने यूँ सहेज दिया मुझे 
पास आ कर खुद में समेट लिया मुझे
मैं अपने विस्तार पे इतराने लगी थी 
"बस मेरी हो तुम" ...
कह कर संक्षेप दिया मुझे  

शक्ल से लगते तो नहीं पर थोड़े से पागल तुम भी हो 
मेरे हर दीवानेपन की हद में शामिल तुम भी हो 
मुझ में खो कर दुनिया से घाफ़िल तुम भी हो 
मैं अहमक सही ..
मेरी इस महफ़िल में अब दाखिल तुम भी हो 

अब तो जहाँ निगाह की बस्तियां जमती है तुम आ ठहरते हो 
मेरा श्वेत श्याम घर था, तुम हर रंग में आ संवरते हो 
महकती चांदनी के डेरों पे तुम आसमान सा आ बसरते हो 
घर की इन दर ओ दरवाजों के दरमियाँ बस तुम ही तो हो

अब मैं नहीं .. बस तुम ही तो हो ..

November 17, 2011

ये सड़क कहीं पहुँचती नहीं


ये गहरे काले पेड़ों के साये
अब नहीं डरती मैं इनसे
मेरे अन्दर की परछाई से
कम काले है
ये साये...

ये लम्बी सी सड़क
सड़क के इस तरफ एक भीड़
इस तरफ सैकड़ों तन्हाईयाँ
चलती ही जा रही है
ये सड़क कहीं पहुँचती नहीं

कार के शीशों पे ये
गिरता काला पानी
सामने की गाडी की तेज़ रौशनी
आँखें चौंधियां जाती है
पर मैं टस से मस नहीं होती

अब नहीं लगता हर आहट पे कोई है
एक आवेग लिए बस मैं चलती जा रही हूँ
मैं बस फिसलती ढलती
पानी में गलती जा रही हूँ ..

ये 'काश' नाम का शब्द खुद पर से
कब का मिटा दिया
बहुत रो चुकी
मैं अब हंसती जा रही हूँ
मैं दलदल में धंसती जा रही हूँ ..

हर चौराहे पे सामान दफनाती जा रही हूँ
मैं खुद को तरसता देख मुस्कुराती जा रही हूँ ..

इस अँधेरी गलियों में खुद को गुमाती जा रही हूँ
खुद से ही नाराज़ हूँ खुद को ही मनाती जा रही हूँ ..

हर दर्द को आँखों से बहाती जा रही हूँ
मैं वक़्त के झुनझुने से खुद को बहलाती जा रही हूँ ..

मैं अपनी हर जीत से हारती जा रही हूँ
मैं ये जिंदगी खुद पर से उतारती जा रही हूँ ..