ठीक से याद नहीं पर शायद मैं बोला करती थी
दोस्त बुलाते तो उनसे हंस के बोला करती थी
कुछ ग़लत होता, तो वकीलों की तरह बोला करती थी
मैं बोला करती थी
कभी नज़्म सी उभरी कभी ग़ज़ल सी गुनगुनाया करती थी
कभी दुआ बन के अपने ही लबों पे आ जाया करती थी
कभी सजदा बन के याद तुझे, मेरे मौला, करती थी
मैं बोला करती थी
महफ़िल-ए-तन्हाई को अनगिनत कहानियों से संजोया करती थी
कल और कल के धागों में बेवजह खुद को पिरोया करती थी
जाने कितने तारों से राज़ सभी खोला करती थी
मैं बोला करती थी
वक़्त की लय पर खुद को नचाया करती थी
कितने चाँद ज़ाया कर के सूरज के क़र्ज़ चुकाया करती थी
रात के पैमाने में दिन के ज़ख्म घोला करती थी
मैं बोला करती थी
ज़िन्दगी की परतों को खुद से कुरेद कुरेद के उतारा करती थी
गीले काजल की स्याही से कागज़ पे दर्द संवारा करती थी
अधूरे जिस्म और आधी पौनी साँसों के रिश्ते तौला करती थी
मैं बोला करती थी
कुछ सदियाँ पहले की बात हो मानो, ज़माने यूँ बीत जाते है
गले में आ आ कर एहसास खुद-ब-खुद रुंध जाते हैं
शब्द भीगते थे पर होठों पे हर शबनम शोला लगती थी
ठीक से याद नहीं पर शायद मैं बोला करती थी
waah
ReplyDeleteकुछ सदियाँ पहले की बात हो मानो, ज़माने यूँ बीत जाते है
गले में आ आ कर एहसास खुद बा खुद रुंध जाते हैं
शब्द भीगते थे पर होठों पे हर शबनम शोला लगती थी
ठीक से याद नहीं पर शायद मैं बोला करती थी
mujhe ye thi shabd achcha nahi lag raha... kyon kyon kyon?
ReplyDeletekoi khamoshi ko samajhne wala mil gaya?
gar nahi to bolte rahiye... hume aapki bak bak sunana acha lagta hai.. :)
Lovely..
ReplyDeleteAwesome poem! and agree with Gurnam! why thi.. you still talk beautifully and meaningfully.. :D
ReplyDeleteतोला, माशा, रत्ती वाला नहीं तौला इस्तेमाल होगा खुद-ब-खुद बाकि सब माशाअल्लाह दुरुस्त ही नहीं तन्दरुस्त है
ReplyDeleteअधूरे जिस्म और आधी पौनी साँसों के रिश्ते तौला करती थी
ReplyDeleteमैं बोला करती थी..
Chuliya aapne man ko...phir se...
aap bolti jaao, ham sab aapko sunne ko kan lagaye baithe hain.
ReplyDeleteGreat!
सच में स्वर्णिम अभिव्यक्ति
ReplyDeleteSuper,,
ReplyDeletesomething touched my heart .. really!
Super,,
ReplyDeletesomething touched my heart .. really!
शानदार
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