October 19, 2011

एक ठंडी आग


एक ठंडी आग की तरह स्याही बिखेरती थी उसकी कलम 
कागज़ बर्फ सा सिकुड़ जाता पर शब्द देर तक जलते रहे

ये कैसे अफ़साने थे आँखों में मौजूद 
आग के शोले भी पानी की तरह पलते रहे 

वो ठंडा चाँद इस ज़मीन से कोसों दूर  
उम्र भर उसकी चाहत में धीरे धीरे पिघलते रहे

क्या सच में जिस्म से जान जुदा कर देती है आग
एक सर्द सी रात में इस ख्याल से उलझते रहे

4 comments:

AJ said...

superb. this one is ur best. and my fav.

Unknown said...

wow... simply awesome :)

रश्मि प्रभा... said...

क्या सच में जिस्म से जान जुदा कर देती है आग
एक सर्द सी रात में इस ख्याल से उलझते रहे
waah

●๋•guℓѕнαn●๋•™ said...

loved the ghazal format di :-)