किसको मालूम है ग़म के कितने और बादल बाकी है ..
हम बरसे तो बस बरसते जा रहे हैं
कौन जानता है जन्नत के निशाँ कहाँ मिलते हैं ..
हम तरसे यूँ की बस तरसते जा रहे हैं
ज़िन्दगी के सूखे सफ़ेद पत्तों पर ..
हम रिश्तों के लहू से लिखते जा रहे हैं
मकान अपना कहते थे जिस दिल को कभी ..
उन दीवारों की हद्द से बाहर निकलते जा रहे हैं
एक बे-लौस सी नज़र हमको कुबूल हुई थी कभी ..
हम उन नज़रों से बच कर छुपते जा रहे हैं
वो जो महसूस होता था तो महसूस ही नहीं होता था ..
अब उसके एहसासों के क़र्ज़ से बिदकते जा रहे हैं
कहानियों के लालच दे कर रोक लिया करता था बरगद का पेड़ ..
पर हम मुसाफिर हैं तो बस एक जिद्द में चलते जा रहे हैं
मोम की गुडिया बन के सदियों तक उम्र गुजारी है ..
अपनी ही आह में अब पिघलते जा रहे हैं
यूँ मेहरबान थी, पर काम न आई मसीही मेरी ..
फिरदौस की गलियों में भी भटकते जा रहे हैं
5 comments:
Speechless...no words to say...there's this deep silence after reading this...that has scores of words in it...Kudos to you...once again!!
Reading your poetry is a great experience as always.. liked this one too..
This is too good - अपनी ही आह में अब पिघलते जा रहे हैं
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I liked the picture accompanying the poetry... Looking at those parallel tracks I'll say..
जानते है मिलेंगे नहीं कभी,
फिर भी यही आस में चले जा रहे है
Teri Kavita Ki Qaayal Hu Mai....Kya Karti Bhala Ilaaj Siwaye Iske K Tujhko Aur Padhti Gayi :)...........sorrry Anu from Paayal Sharma (PS) as i hv said TU instead of AAP(yaha FITT nhi ho rha tha AAP)....;)
पर हम मुसाफिर हैं तो बस एक जिद्द में चलते जा रहे हैं...
pata nahi kahan ja rahe hain.. but yes chalte ja rahe hain..
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