जिन मंज़र पर मिल के, हम और तुम बात करते थे ..
वो मंज़र आज भी तुम्हारी ही बात करते है
वो ख्वाब की किताबें, जिन में हम खोया करते थे..
हर्फ़ हर्फ़ आज भी, आपस में इकरार करते हैं
वो शाम का किनारा जहां हम ने पानी पानी खेला था ..
वहाँ के पत्थर, नदी से तुम्हारी शिकायत करते हैं
वो दरखत जिसपे मेरा नाम लिख कर तुम अपने नाम से ढक देते थे ..
वो भी कब से तुम्हारा इंतज़ार करते हैं
कुछ मुट्ठी बादलों से, चाँद पर जो घर बनाया था ..
चांदनी में वो बादल अब, बरसात करते हैं
वो हवाओं में झूलता, हमारे सावन का झूला ..
इन मौसमों में उसको ढूँढा, हम कई बार करते हैं
वो धुप की परियां, जो रेशमी लिबास में नाचा करती थी ..
अब भी तुम्हारे बारे में पूछा, बार बार करती हैं
वो छत जहाँ आसमान और मैं, दोनों खिड़की ताप के मिलने आये थे ..
अब वीरान पड़ी है, बस आसमान को टुकुर टुकुर निहारा करती है
5 comments:
अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं। बधाई स्वीकारें।
आशा और उत्साह जगाती एक अनुपम कृति..!!!
संजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
lovely creation :)
वो ख्वाब की किताबें, जिन में हम खोया करते थे..
हर्फ़ हर्फ़ आज भी, आपस में इकरार करते हैं lovely Anu !
♥
वो शाम का किनारा जहां हम ने पानी पानी खेला था ..
वहां के पत्थर, नदी से तुम्हारी शिकायत करते हैं
बहुत सुंदर !
आदरणीया अनुराधा जी अभिवादन !
बहुत ख़ूबसूरत है आपका ब्लॉग …
और … रचनाएं !
आना अच्छा लगा …
शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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