आज शब्द फिर मुझ पे झल्लाने लगे हैं
क्या फिर से वही लिखने को कहोगी
वो पुरानी बात जिसके सर न पैर
कुछ बेकार सा नाम दे कर रहोगी
सिर्फ एक शाम का बहाना था
रात तक उसे सिमट जाना था
तुम हर शाम उस शाम को समेटती आ रही हो
उस शाम का ढलना कब तक टालती रहोगी
कुछ भी तो नहीं कहा उसने
हमने कितना ज़ोर दिया ज़रा पूछो हमसे
दोनों चुपचाप चलते रहे कितनी देर
उन क़दमों को कब तक सफ़र में संभालती रहोगी
उफ़, मुस्कुराना तो सब जानते है
लोग तो आजकल बेवजह भी मुस्कुराते है
उसके खुश इख्लाक को इश्क समझ के
कब तक खवाबों के घोंसले बनाती रहोगी
हमें माफ़ करो
हमसे ये अनकही बातें नहीं समझी जाती
ये आँखों के इज़हार ये बे जुबां इकरार
हम नबीना हैं कब तक हम से मदद मांगती रहोगी
उसका रास्ता यूँ निहारती रहोगी
उस सांवरे के ख्वाब संवारती रहोगी
हम थक गयीं तुम्हे समझाते समझाते
तुम कब तक उसे अपना मानती रहोगी
5 comments:
कविता का शीर्षक "शब्दों की डांट" एवं प्रथम पंक्ति "आज शब्द फिर मुझ पे झल्लाने लगे है" बरबस ही सारा ध्यान अपनी तरफ खींच लेते है!
काफी सरहाने योग्य कविता लिखी गयी है!
प्रशंसा करना होगा आपकी अदभुत लेखनी की जो शब्दों को भावनाओ में उकरने का हुनर जानती है !
ज्यादा कुछ कहूँगा नहीं वरना शब्दों की फटकार मुझे भी न लग जाये ऐसे में ही !
बस यूही लिखते रहे हमेशा !
~आपका प्रिय पाठक ~
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति , बधाई
"उन क़दमों को कब तक सफ़र में संभालती रहोगी.."
Bahut badhiya..
just lovely..
Ms. Anuradha, ur wrds just touch my heart...
प्रभावित करते शब्द...अनुराधा जी
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