March 28, 2012

धीमे धीमे





धीमे धीमे रात सरकती जाती है पैरों तले ..
हाथों में चाँद दबोच के बैठे हैं

धीरे धीरे कागज़ पर पिघलता है काजल ..
उँगलियों में ख्वाब निचोड़ के बैठे हैं ..

दिल ही दिल में पुराने किस्सों से बातें की हैं ..
फिर तेरी यादों के आगोश में बैठे हैं

दूं क्या जवाब तुझे तेरे सवालों का ..
आज अपना ही दिल तोड़ के बैठे हैं

दोस्तों की भीड़ में तन्हाई के सैकड़ों काफिले देखे ..
ये हम किन बेतरतीब दौर में बैठे हैं ..

5 comments:

AJ said...

धीरे धीरे कागज़ पर पिघलता है काजल ..
उँगलियों में ख्वाब निचोड़ के बैठे हैं ..


Umda

Inder said...

Everytime I start claiming to feel the best of your indepth thoughtfullness, you come up with more of it..

Agony, pathos have been the subjects often picked among poets.. Their poetic abilities and passion enable them to deliver the theme with varying magnitude..

However, I feel so mesmerised and carried away when you not only let your words depict the sense on the subject.. but also between the lines certain abstract & unmatched elements like..
silence in peripheri of noise..
heart's own confinement of solitude in this open world..
emotional magnification of the root moments that trigger the thought of prose..
involuntarily emboss out of the page..

SPELL BINDER!!

Now that is what it takes to be the best poetess.. Born poetess.. Blessed poetess.. My favourite poetess.. God bless :)

संजय भास्‍कर said...

आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया....बहुत बेहतरीन प्रस्‍तुति...!

Pranitha said...

दूं क्या जवाब तुझे तेरे सवालों का ..
आज अपना ही दिल तोड़ के बैठे हैं...
Wah!!!

Aadii said...

"Betarteeb Daur" hi hai ek!
Badhiya rachna.