मेरे जलते शब्दों के ढेर में ..
कुछ यादों के गीले काग़ज़ भी हैं..
और उनसे उफनते बादल भी ..
जो बदन पर चिपक गए हैं..
बर्फ़ पर जिस्म सेंकते पुरानी बातों के गुच्छे ..
जिन्हें आवाज़ ने कभी चाँद पर भेज दिया था ..
पिघल करनदियों में बहने को ..
पिघल करनदियों में बहने को ..
मैं मृगतरिश्ना में भटक कर ज़मीन में धँस गयी हूँ..
और यहाँ सैंकड़ों आसमान जमा हैं..
यहाँ ज़मीन के अंदर..
और यहाँ सैंकड़ों आसमान जमा हैं..
यहाँ ज़मीन के अंदर..
साँस लेते हुए सितारे ..
बौराए हुए कई चाँद..
और तुम्हारे यूँही कहे हुए शब्द..
मर कर भी अमर हैं..
यहाँ ज़मीन में गढ़े हैं ..
बौराए हुए कई चाँद..
और तुम्हारे यूँही कहे हुए शब्द..
मर कर भी अमर हैं..
यहाँ ज़मीन में गढ़े हैं ..
हमारे स्नेह बंधन का वो धूमकेतु ..
तब तक ब्रह्मांड के चक्कर काटता रहेगा ..
जब तक इस सीमित से शरीर में ..
प्राण और आत्मा जीवित हैं ..
तब तक ब्रह्मांड के चक्कर काटता रहेगा ..
जब तक इस सीमित से शरीर में ..
प्राण और आत्मा जीवित हैं ..
पर हम तुम युगों से भी आगे बढ़ते रहेंगे ..
बेड़ियों में जकड़े हुए ..
अपनी अपनी कहानियों में क़ैद रह कर भी ..
हम तुम असीमित रहेंगे ..
बेड़ियों में जकड़े हुए ..
अपनी अपनी कहानियों में क़ैद रह कर भी ..
हम तुम असीमित रहेंगे ..
6 comments:
सुन्दर रचना ।
वाह्ह्ह्ह् बहुत सुंदर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
सामाजिक वर्जनाओं में जकड़ी ज़िन्दगी को स्वच्छन्द आकाश में विचरने की तीव्र उत्कंठा होती है। स्त्री- संघर्ष को बयां करता मार्मिक शब्दचित्र।
sundar rachna :)
सुन्दर रचना किन्तु किंचित जटिल. भाषा, बिम्ब, उपमा, रूपक आदि सरल हो तब भी कविता अच्छी हो सकती है. मिर्ज़ा ग़ालिब के दुरूह अंदाज़ स्थान पर आज फ़िराक गोरखपुरी का सरल अंदाज़ पाठकों को अधिक भाएगा.
Post a Comment