February 23, 2012

मेरा कुछ सामान ...



मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है ..
हो सके तो उसे अपने पास ही रख लेना

एक घूंघट की शर्म जो शायद दरवाज़े के पीछे टंगी है ..
उसे बिस्तर के एक किनारे पर रख देना

एक पायल यहीं कहीं गुम गयी थी चलते चलते ..
मिले तो अपने क़दमों के पास पास रख लेना

मेरे माथे का चाँद, अलसाया से मेज पे ऊँघता होगा ..
उसे .. सुनो ..
उसे तुम अपनी दिल के आसमान पे टांग लेना 

कुछ खुले हुए सिरे है मेरे उलटे सीधे सवालों के ..
उन्हें अपनी अनकही के धागों में बाँध लेना

एक पिघला सा ख्वाब होगा कांच की कटोरी में ..
उसे अपने आईने में कही पलक पलक छुपा लेना

कुछ सितारे जो उंगलियों से छुए तो जुगनू बन गए ..
उन्हें छत पे जा कर हवाओं पे सजा देना 

एक बारिश होगी खिडकी पे भीगने को डाली थी ..
ठण्ड न लग जाए कहीं, 
तुम बारिश उतार कर, मेरा पीला वाला दुपट्टा ओढा देना 

दराज़ मैं एक खत होगा, प्यासे लफ्जों में सूखता हुआ ..
उसे अपनी गीली मुस्कान से एक बार फिर सींच देना

एक चाय का कप जो बिस्तर की साइड नीचे पड़ा मिलेगा ..
उस पर से मेरे होठों के निशाँ उतार के अलमारी में रख देना

वो सुनहरी शाम जो मेरी बालियों में अटकी पड़ी है ..
उसकी कशिश, संभाल के उतारना.. यूँ कमरे में बिखरने मत देना

एक गुल्लक जिसमे हमारी बातों की अशर्फिया डाला करती थी ..
मैं नहीं हूँ तो भी तुम उसे भरते रहना

तकिये के नीचे हर रात एक मुस्कान छुपाया करती थी ..
अब भी हंस रही होंगी, तुम उन्हें अपने होठो पे रख लेना

वो करवटों की जन्नत, जहाँ हम तुम मिला करते थे ..
तुम्हे मिल जाए, तो उसे वापिस अपनी दुआओं में रख लेना 

February 22, 2012

कल रात फिर ..




सूरज टूट टूट के गिरने लगा है समंदर में ..
मैंने कल रात फिर चाँद डुबोया था यहाँ

यादों की लहरें साहिल पे बिखरने लगीं हैं ..
हिज्र के मोतियों को कभी संजोया था यहाँ

एक शाम के आधे पौने वादे पे पूरा दिन निसार किया ..
पानी के शीशे में अपना अक्स छुपाया था यहाँ

रोज़ सिमट आती हैं हसरतें अपने आप में ..
एक बहती रात में एक लम्बा सा दिन पिरोया था यहाँ

पिछली पतझड़ में गिरे, सूखे पत्तों में भी नमी सी है ..
इन्हें एक बार भीगा बादल दिखाया था यहाँ

ऐ दिल ..



तुमने कहाँ से बेसबब कहानियाँ लिखना सीखा ..
कहाँ से सवालों की जवाबदारियाँ लिखना सीखा

खुद ही धड़कते हो दर्द बन के सीने में ..
कहाँ से हरे ज़ख्मों सा रिसना सीखा

तुम को दूर रखा था इश्क और किस्मत के दो पाटों से ..
तुमने कहाँ से रोज़ रोज़ ज़िन्दगी में पिसना सीखा

तुम्हे हर खरीदार के तोल मोल से बचाया मैंने ..
तुमने कहाँ से खुद बाज़ार जा कर बिकना सीखा

किसने दी तुम्हे इजाज़त मोहब्बत में पागल हो जाने की ..
तुमने कहाँ से प्यार करना इतना सीखा

एक चादर सी फैली हैं अब दिन के उजालों पर ..
तुमने कहाँ से रौशनी पर मर मिटना सीखा

दर्द पराये ले कर खुद को परेशान करने लगे ..
तुमने कहाँ से खुद में उलझना सीखा

एक उम्र गुजरी है तुम में, ज़िन्दगी बूढी हुई है ..
तुमने कहाँ से फिर से बच्चे सा बिलखना सीखा

अभी को कितने इम्तिहाँ बाकी है मजबूरियों के ..
तुम ने कहाँ से मुश्किलों से बिदकना सीखा

ये मेले हैं, भीड़ है सौदागरों की ..
तुम ने कहाँ से अकेले में तड़पना सीखा

अभी तो खुद से खुद की मुलाक़ात बाकी है ..
तुमने कहाँ से क़तरा क़तरा बिछड़ना सीखा

एक मुसाफिर था तू भी, रास्तों पे क़दमों के निशाँ कहते है ..
तुम ने कहाँ से बे वजह रुकना ठिठकना सीखा

मुलायम ही होती रातें तो कौन नींद से शिकायत करता ..
तुमने कहाँ से चाँद से लड़ना सीखा

फासलों से ज़िन्दगी में कुछ पल इनायतें हैं ..
तुम ने कहाँ से इस दरमियान मरना सीखा

वक़्त की शाखों से रात टपकती है दिन भर ..
तुम ने कहाँ से रातों को दिन करना सीखा

February 13, 2012

ये दौलत की सल्तनत



ये दौलत की सल्तनत तुम्हे मुबारक हो, ऐ दोस्त /
मैंने रास्ते में फ़कीर को हँसते हुए देखा

तुमने खूब जीते होंगे दुश्मनों के घर /
मैंने तुम्हारे घर एक बच्चे को बिलखते देखा

तुम्हारे शोहरत की किस्से में रोज़ इजाफा हुआ करे /
मैंने तुम्हारे दोस्त को तुमसे बिछड़ते देखा

तुम महफ़िल की जान हो और हर दिल अज़ीज़ हो
मैंने वीरानियों में तुम्हे रोते देखा

तुमने हाथों में जकड ली सारी दुनिया /
मैंने तुम्हारे हाथों से वक़्त फिसलते देखा

तुम सूरज की तरह निकलते हो तो ढल भी जाओगे एक दिन
चाँद मुसाफिर है, मैंने इसे सिर्फ चलते देखा

तुम रहा किये गुमान में की ज़िन्दगी तुम्हारी है /
मैंने अंधेरों में रौशनी को भी रंग बदलते देखा

तुम ने ज़मीन पर लिख दिया नाम, अब ज़मीन तुम्हारी है /
मैंने बेनाम आसमान को भी दिन रात बरसते देखा

एक ठंडी लाश सीने से चिपकाए चलते हो /
मैंने तुम में एक जिस्म सुलगते देखा

मेरे हर सवाल के जवाब में एक और सवाल करते हो /
मैंने तुम्हे तुम्हारे ही जवाबों में उलझते देखा

यूँ कहने को तुम्हारे पास लफ़्ज़ों की कमी तो नहीं /
मैंने तुम में खामोशियों को टहलते देखा

एक दर्पण में तुमने खुद को मुस्कुरा के देखा होगा /
मैंने उस दर्पण को तुम से आँख चुराते देखा

तुम खुश हो की तुम मंजिल की गोद में हो /
मैंने तुम्हारे क़दमों में एक और सफ़र मचलते देखा

साहिबान, मेरे अल्फाजों पे गौर न करो /
मैंने खुद को भी राख राख बिखरते देखा

February 11, 2012

शायद मैं बोला करती थी ..


ठीक से याद नहीं पर शायद मैं बोला करती थी 
दोस्त बुलाते तो उनसे हंस के बोला करती थी 
कुछ ग़लत होता, तो वकीलों की तरह बोला करती थी 
मैं बोला करती थी 

कभी नज़्म सी उभरी कभी ग़ज़ल सी गुनगुनाया करती थी 
कभी दुआ बन के अपने ही लबों पे आ जाया करती थी
कभी सजदा बन के याद तुझे, मेरे मौला, करती थी 
मैं बोला करती थी

महफ़िल-ए-तन्हाई को अनगिनत कहानियों से संजोया करती थी 
कल और कल के धागों में बेवजह खुद को पिरोया करती थी 
जाने कितने तारों से राज़ सभी खोला करती थी 
मैं बोला करती थी 

वक़्त की लय पर खुद को नचाया करती थी 
कितने चाँद ज़ाया कर के सूरज के क़र्ज़ चुकाया करती थी 
रात के पैमाने में दिन के ज़ख्म घोला करती थी 
मैं बोला करती थी 

ज़िन्दगी की परतों को खुद से कुरेद कुरेद के उतारा करती थी 
गीले काजल की स्याही से कागज़ पे दर्द संवारा करती थी 
अधूरे जिस्म और आधी पौनी साँसों के रिश्ते तौला करती थी 
मैं बोला करती थी 

कुछ सदियाँ पहले की बात हो मानो, ज़माने यूँ बीत जाते है 
गले में आ आ कर एहसास  खुद-ब-खुद रुंध जाते हैं 
शब्द भीगते थे पर होठों पे हर शबनम शोला लगती थी 
ठीक से याद नहीं पर शायद मैं बोला करती थी 

February 9, 2012

ज़िन्दगी की हर उस शाम ..



जहाँ एक बूढा दिन, एक रात के बचपन से मिला करता है
दिखता नहीं पर उम्मीद का एक नन्हा सा चाँद  उग आता है
जब आसमान का रंग गहरा होते होते .. कुछ पल को ठहर जाता है
    ज़िन्दगी की हर उस शाम में तुम याद आते हो ..

जब जीने से रौशनी की परियां उठ के जाने लगती हैं
जब झूले पर बैठ के एक किताब खुद को पढ़ने लगती है
जब बिन बारिश भी मिटटी से सौंधी महक आने लगती है
    ज़िन्दगी की हर उस शाम में तुम याद आते हो ..

जब आहट भर से निगाहें अधखुले दरवाज़े से टकराने लगें
जब गुलाबों में भी रंग तुम्हारा आने लगे
जब चाय के कप पे तुम्हारे होठों के निशान दिखने लगे
    ज़िन्दगी की हर उस शाम में तुम याद आते हो ..

जब छत से दिन भर सूखते ख्वाब उतार लाने का समय हो
जब आसमान में सिर्फ एक तारा और अकेला चाँद हो
जब ना दिन से कोई शिकायत हो ना रात को बुलाने की जल्दी हो
    ज़िन्दगी की हर उस शाम में तुम याद आते हो ..

बड़ी बेपरवाही से खुद की पहरेदारी करती हूँ
पर तुम्हारी यादों से हर शाम वफादारी करती हूँ
कभी सोचती सोचती खुद से पूछा भी करती हूँ
    की तुम क्यूँ नहीं आते जब हर शाम तुम याद आते हो ..

February 3, 2012

कुछ अजनबी हुआ है मुझ में



आज फिर टूटे है दिल के आइने तमाम,
आज फिर कुछ अजनबी हुआ है मुझ में !

आज फिर मिट गए मेरी किताब के लफ्ज़ सभी ,
आज फिर कुछ पानी हुआ है मुझ मे !

आज फिर बारिश में भीगता नहीं ये मन ,
आज फिर कुछ बेमानी हुआ है मुझ में !

आज फिर रिवाजों से लड़ कर आई हूँ मैं ,
आज फिर कुछ खानदानी हुआ है मुझ में !

आज फिर खुद को धोखे से मनाया है,
आज फिर कुछ बेईमानी हुआ है मुझ में !

आज फिर लफ्जों को वक्त के पालने में रख आई,
आज फिर कुछ गुमनामी हुआ है मुझ में !

आज फिर बेतरतीब ख्वाब आखों से निचोड़े हैं,
आज फिर कुछ अधूरी कहानी सा हुआ है मुझ में !

आज खुद को जिंदगी से दौड लगाते देखा ,
आज फिर कुछ मेरा ही सानी हुआ है मुझ में !

आज फिर तय है की आंखों से नहीं बहने दूंगी आँसू,
आज फिर कोई जिद्द ठानी हुई है मुझे में !

आज फिर कतरा कतरा तन्हाई पी ली हमने,
आज फिर कुछ खाली हुआ है मुझ में !