पीपल की छाया तले मिली थी इक दोपहर..
मैली कुचली, कुछ सकपकाई सी दोपहर..
सर पर सूरज रख, दिन बेचने निकली दोपहर..
पेट सहलाती जीभ घुमाती , भूखी प्यासी सी दोपहर..
कब घर जाएगी, किरणों को क्या खिलाएगी..
यही सोचती, माँ जैसी थकी थकाई सी दोपहर..
शाम को बासी रोशनी कौन खरीदेगा..
पत्थर पे सर रख कर, खुद पथराई सी दोपहर..
बुझती आँखें मगर कड़क सुनेहरी..
ग़रीब के घर में चुंधियाई सी दोपहर..
चाँद पियक्कड़, मुँह औंधे गिर के सो जाएगा..
अपनी किस्मत को कोस्ती, कसमासाई सी दोपहर..
जब नई नवेली सुबह थी,
लोग पानी की 'मुँह दिखाई' दिया करते थे..
ये कहाँ दिन रात के जाल में अटकी,
खिस्यायई सी दोपहर..
Peepal ki chhaya tale mili thi ik dopahar..
Maili kuchli, kuch sakpakaayi si dopahar..
Sar par suraj rakh, din bechne nikli dopahar..
pet sehlaati jeebh ghumaati bhooki pyaasi si dopahar..
Kab ghar jaayegi, kirnon ko kya khilaayegi..
Yahi sochti, maa jaisi thaki thakaai si dopahar..
Shaam ko baasi roshni koun khareedega..
Patthar pe sar rakh kar, khud pathraayi si dopahar..
Bujhti aankhein magar kadak sunehri..
Gareeb ke ghar mein chundhiyaai si dopahar..
Chaand piyakkad, munh aundhe gir ke so jaayega..
Apni kismat ko kosti, kasmasaayi si dopahar..
Jab nai naveli subah thi,
log paani ki 'munh dikhaayi' diya karte the
Ye kahaan din raat ke jaal mein atki,
khisyaayai si dopahar..