January 8, 2017

सीमित - असीमित

6 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर रचना ।

Malti Mishra said...

वाह्ह्ह्ह् बहुत सुंदर

Sudha Devrani said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

Ravindra Singh Yadav said...

सामाजिक वर्जनाओं में जकड़ी ज़िन्दगी को स्वच्छन्द आकाश में विचरने की तीव्र उत्कंठा होती है। स्त्री- संघर्ष को बयां करता मार्मिक शब्दचित्र।

सुनीता अग्रवाल "नेह" said...

sundar rachna :)

गोपेश मोहन जैसवाल said...

सुन्दर रचना किन्तु किंचित जटिल. भाषा, बिम्ब, उपमा, रूपक आदि सरल हो तब भी कविता अच्छी हो सकती है. मिर्ज़ा ग़ालिब के दुरूह अंदाज़ स्थान पर आज फ़िराक गोरखपुरी का सरल अंदाज़ पाठकों को अधिक भाएगा.